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शब्दों में उलझा इतिहास

इतिहास को पढने पढ़ाने समझने और समझाने के तरीके ने इतिहास का जितना बेडा गर्क किया है शायद उतना बुरा इसके विभिन्न writing schools ने नहीं किया है। आज हम अक्सर leftist writing तो कभी rightist writing तो कभी orientalist writing को इतिहास  बिगाड़ने का श्रेय देते हैं, लेकिन  schools में जिस तरह से इतिहास पढ़ाया जाता  है उसका बाल मन पर क्या प्रभाव   पड़ता है इसकी  चर्चा भी जरुरी  है।   बचपन में हमसे अक्सर पूछा जाता था कि भारत की खोज किसने की।  और हम बड़े   शान   से Vasco  Da  Gama का नाम लेते   थे।  मन में यही आता था कि Vasco Da Gama से  पहले  भारत को कोई  जानता ही  नहीं था ।  जबकि  सच्चाई  यह है कि  यूरोप  से  भारत  तक के    समुद्री मार्ग की खोज Vasco da gama ने की थी।                             एक और प्रश्न जिसे हम अक्सर रु-ब-रु होते हैं वह है---- Grand Trunk road किसने बनवाया? हमारा उत्तर होता है --- शेरशाह ने।  जबकि शेरशाह ने उस सड़क को rennovate कराया था न कि बनवाया था। इसका कारण है कि rennovate शब्द के लिए आम भाषा में बनवाना शब्द प्रयोग में  है जैसे मैं अपनी bike बनवाने जा रहा हू

“हलाला” का यह कैसा justification?

समय के साथ सोच, व्यवहार, नैतिकता, सभी बदलते हैं। निश्चित रूप से परिभाषाएँ भी बदलती हैं और उन definitions को अपनी सहूलियत के हिसाब से explain भी किया जाता है। “हलाला” एक ऐसी कुप्रथा है जिसे मर्द कितना भी justify कर ले, व्यावहारिक दृष्टिकोण से उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसे सही ठहराने के लिए क़ुरान के आयतों को अनेक ढंग से explain  गया है जिसमें हलाला को अपने मूल रूप से बिलकुल अलग दर्शाया गया है।       इससे पहले कि क़ुरान में हलाला के provisions पर बात करें , मैं Facebook के एक video post को चर्चा में लाना चाहता हूँ। video शाज़िया नवाज़ के द्वारा निर्मित है और उन्ही के द्वारा post भी किया गया है। शाज़िया पाकिस्तान की हैं। वहीं उनकी पढ़ाई लिखाई हुई और अब वह अमेरिका में रहती हैं। पेशे से डॉक्टर हैं और निश्चित रूप से काफ़ी आधुनिकता (modern) हैं। इस video post में उन्होंने हलाला पर अपना विचार व्यक्त किया है। वह कहती हैं कि  हलाला दरअसल औरतों पर ज़ुल्म नहीं बल्कि मज़ा करने का एक मौक़ा है। इसे उन्होंने justify करते हुए कहा है कि हलाला उस मर्द के लिए सज़ा है जिसने अपनी पत्नी को तलाक़ दिय

कितनी कठिन है नीतीश की राह ?

कहते हैं राजनीति और प्रशासन में हर समय और हर किसी को खुश नहीं रखा जा सकता। कुछ ऐसा ही नज़ारा है बिहार में। राज्य में विधान सभा चुनाव होने को एक वर्ष से भी कम समय रह गया है और कई ऐसे सवाल हैं जो सत्ताधारी पार्टियों को फ़िर से सत्ता में काबिज होने पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। इसमें भी शक नहीं कि वर्तमान सरकार ने आशातीत कार्य किए हैं, लेकिन जब हम सरकारी आँकड़ों से उसकी तुलना करते हैं, तो आम जनता; जहाँ आज भी करीब 40% लोग निरक्षर हैं, को समझाना सरकार के लिए कठिन होगा। इसके अलावा जदयू और भाजपा के आंतरिक कलह भी अब जगजाहिर हैं। विकास की बात करें तो वर्तमान सरकार के पास आँकड़ों की कमी नहीं है, पर यह भी सच है कि यह कई बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने में अक्षम रही है। भूख से होने वाली मौतें, नरेगा में भ्रष्टाचार और कई ऐसी अनियमितताएं सरकार को कटघरे में ला खडी करती हैं। वहीं शहरी क्षेत्रों में हुए भौतिक विकास यानी सडक, पानी, बिजली आदि में सुधार सरकार की उपलब्धि कही जा सकती है। लेकिन आज भी 70% जनता गांवों में ही रहती है और वोट डालने का प्रतिशत भी उन्हीं का ज्यादा होता है। शायद यही कारण है कि वर्तमान सर

वर्जिन प्यार : ऐसा होता है क्या ?

  पता नहीं हिंदी में वर्जिनिटी का सबसे करीबी शब्द कौन सा है? क्योंकि इसके लिए जब हम अविवाहित, अविवाहिता, कुंवारे या कुंवारी शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वह भारत या पूरे दक्षिण एशिया में तो मान्य होगा, पर इन शब्दों को चीड़-फाड़ कर देखें तो दोनों के अर्थ काफी दूर हो जाते हैं. लेकिन इन सभी शब्दों का एक कॉमन फैक्टर है; प्यार. हाँ, प्यार के कारण अनेक हो सकते हैं.                                                             करीब दो साल पहले काफी चर्चित प्रो. मटुकनाथ का मैं इंटरव्यू कर रहा था. पहले से ही मैंने सोच रखा था कि आज मैं उनसे उगलवा के ही रहूँगा कि इस उम्र में उनके प्रेम के पीछे कहीं-न-कहीं सेक्स महत्वपूर्ण है. लेकिन मैं हैरान रह गया जब दूसरे प्रश्न के जवाब में ही उन्होंने कहा कि बिना सेक्स के प्रेम बेमानी है; सेक्स तो प्रेम का प्रवेश द्वार है और इसे तार्किक रूप से सिद्ध भी कर दिया. मै दोराहे पर खड़ा था. कभी प्रेम, वर्जिनिटी और सेक्स को एक साथ जोड़ता , तो कभी लगता था कि प्यार स्वार्थी क्यों होता है? जब कोई प्यार में पड़ता है तो क्यों अपने साथी से यह अपेक्षा रखता है कि वह उन इमोशंस को क

कुछ तो शर्म करो यार.....

नीतीश जी की सरकार चार वर्ष पूरी कर रही थी और और इस वर्ष भी पूरे ताम-झाम के साथ रिपोर्ट-कार्ड पेश करने की रस्म अदा होनी थी. जश्न में चार चाँद लगाने के लिए राज्य के सभी बड़े-बड़े अखबारों को विज्ञापनों से सजाया गया. विज्ञापन भी इस तरह कि प्रत्येक अखबार को पांच-छह पन्नो का परिशिष्ट लगाना पड़ा. गत २४ नवम्बर का अखबार प्रशस्ति-पत्र ही था. हद तो तब हो गयी जब एक जाने-माने अखबार के कोलकाता अवस्थित मुख्यालय को सारा विज्ञापन चला गया और उसके पटना संस्करण को एक भी हाथ नहीं लगा.                                                    अब ज़रा मुख्यमंत्री जी के प्रेस कांफ्रेंस पर भी नज़र डालें. स्वागत भाषण में उप-मुख्यमंत्री ने बिहार से मजदूरों के पलायन में आयी कमी को दिखाने के लिए क्या ज़बरदस्त आंकड़ा दिया. बकौल उनके २००६-०७ में ८८५ करोड़ रुपये मानी आर्डर के रूप में बिहार आये और इस वर्ष सिर्फ ५९८ करोड़ रुपये ही आये हैं, मतलब पलायन की संख्या में कमी आयी है. जनाब, इस दुनिया में एटीएम, बैंक जैसी भी कुछ चिडिया है. मुख्यमंत्री जी का संबोधन पडा प्यारा था. निश्चित रूप से बिहार में काम तो बहुत हुआ है, पर आज भी यहीं